May 11, 2024
देहरादून। अप्रैल माह में विश्व के गिने-चुने सर्वाधिक जैव विविधता सम्पन्न हॉट स्पॉट में से एक हिमालय अग्निकाण्डों से धधकता दिखा। जम्मू-कश्मीर से लेकर मणिपुर-नागालैण्ड तक वनाग्नि की घटनाओं के कारण जंगलों के साथ ही जंगल के प्राणी और दुर्लभ तथा नाजुक वनस्पतियों का विनाश हो गया। इस आग ने हिमालय के पारितंत्र को प्रभावित किया। वहीं उत्तराखंड के वनों पर वनाग्नि से प्रकृति पर भारी संकट पैदा हो गया। ये घटना महज इसलिए चिंता की बात नहीं है जंगल में आग लगी है बल्कि यह इसलिए चिंता की बात है कि इससे हिमालय के ग्लेशियर्स को खतरा है। जंगल की आग से निकला ब्लैक कार्बन हिमालय के लिए भस्मासुर बन रहा है। इस क्षेत्र में इंसानी जीवन पर भी बड़ा खतरा पैदा हो गया है। वहीं वहीं देश का प्लाईवुड उद्योग भी संकट में आ गया है।
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वनाग्नि की लपटों में हिमालय
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग ने उपग्रहों के माध्यम से वनाग्नि की घटनाओं को एकत्रित किया। इसके बाद इसकी सूचना विभिन्न राज्यों के वन विभागों को दी गई जिससे वे समय पर कार्यवाही कर सके। विभाग के वनाग्नि संबंधी डैशबोर्ड पर 28 अप्रैल को देशभर में कुल 278 घटनाएं दर्ज की गई हैं जिनमें 124 वनाग्नि की बड़ी घटनाएं के हिमालयी राज्यों की हैं। इनमें से भी सर्वाधिक 75 घटनाएं अकेले उत्तराखण्ड की हैं। अन्य हिमालयी राज्यों में हिमाचल प्रदेश में 18, जम्मू-कशमीर 12, मणिपुर 14, नागालैण्ड की 1 और असम की 3 घटनाएं दिखाई गई है। सबसे भयावह स्थिति मध्य हिमालय स्थित उत्तराखण्ड की है। जहां 27 अप्रैल को वन विभाग ने 196 घटनाएं दर्ज कीं जो कि 316.77 हैक्टेअर वन क्षेत्र के जलने की थीं।
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खराब होती उत्तराखंड की आबो हवा
उत्तराखंड में 25 अप्रैल को एक ही दिन में वनों में आग लगने की 54 घटनाएं रिकॉर्ड की गई। इससे पहले 23 अप्रैल को भी वनों में आग लगने की 52 घटनाएं हुई थीं। आग के कारण पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचा है। इन घटनाओं पर पर्यावरण विशेषज्ञ भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं मान रहे हैं। इससे समय पर बर्फबारी और बारिश पर प्रभाव पड़ने आशंका जाहिर की गई है।
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लपटों में हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड
उत्तराखण्ड वन विभाग के डैशबोर्ड में दिए गए विवरण के अनुसार राज्य में पिछले छह माह के दौरान अब तक 1558 वनाग्नि की घटनाएं दर्ज हुईं जिनमें 2581.67 हैक्टेयर वन क्षेत्र जला है। इसमें वन्यजीवों के लिए संरक्षित क्षेत्र भी है। विभाग ने अब तक कुल 18,404 वृक्षों के जलने की बात तो स्वीकार की है जबकि मरने वाले वन्य जीवों की संख्या शून्य दर्शा रखी है। यह आंकड़ा अपने आप में अविश्वसनीय प्रतीत होता है। यह वन विभाग की मंशा को जाहिर करता है कि वह वन्यजीवों के जीवन और पर्यावरण के प्रति कितना उदासीन है। दूसरी ओर कुमाऊं में वनाग्नि से जंगली जानवरों से लेकर आम इंसानों तक को धुएं की वजह से सांस लेना मुश्किल कर दिया। वन्य जीव वनाग्नि की वजह से जान बचाने के लिए इधर-उधर भागते दिखे। हालात यह रहे कि कई गांवों में तो आबादी तक जंगल की आग पहुंच गई। पिछले एक माह के दौरान जंगलों में आग की घटनाओं ने तेजी पकड़ी है। एक अप्रैल से लेकर 27 अप्रैल तक पूरे प्रदेश में 559 वनाग्नि की घटनाएं हुई। इनमें कुमाऊं की 318 घटनाएं भी शामिल है। जलते जंगलों से पर्यावरण विद के साथ ही स्थानीय निवासी और सरकार तक को चिंतित कर दिया। हालांकि स्थानीय लोगों का कहना है कि जब गंभीरता दिखानी चाहिए तब विभाग दिखाता नहीं, जब हालात नियंत्रण के बाहर हो जाते हैं तब विभाग, आला अफसरों से लेकर जनप्रतिनिधियों को वनाग्नि और हो रहे पर्यावरण के नुकसान की याद आती है।
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वायु सेना के हेलीकॉप्टर की मदद
चिलचिलाती गर्मी में जब आग पर काबू पाने में वन विभाग असफल हो गया तब सेना के एमआई-17 हेलीकॉप्टर की मदद ली गयी। हेलीकॉप्टर ने भीमताल की झील से पानी भर कर जंगल में लगी आग पर बौछारें की। इस दौरान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी खुद हालात पर नजर रखे थे।
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ग्लेशियर्स को नुकसान
गौरतलब है कि जंगलों में लगने वाली आग से निकलने वाले ब्लैक पार्टिकल्स वायुमंडल में कुछ समय तक मौजूद रहते हैं इसके बाद धीरे-धीरे नीचे आते समय एक काली परत बना लेते हैं। जब यही पार्टिकल्स ग्लेशियर पर फैल जाते हैं तो पर्यावरण के लिए एक नई समस्या खड़ी हो जाती है। पर्यावरण पर काम करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि इन कार्बन के कणों के ग्लेशियर पर मौजूद होने से ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार बढ़ जाती है। यह कार्बन गर्मी को अवशोषित करते हैं और तेज धूप के दौरान ग्लेशियर को ज्यादा हीट करते हैं। उधर ऐसी स्थिति में नदियों में पानी की मात्रा बढ़ने के कारण उनके किनारे भू कटाव की समस्या भी बढ़ सकती है। कुल मिलाकर यह स्थिति पूरे पर्यावरण के चक्र को बदल देती है और हिमालय का इकोसिस्टम भी इससे प्रभावित होता है।
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वन विभाग बनाएगा रिपोर्ट
वनों की आग के कारण कार्बन उत्सर्जन की स्थिति क्या होती है इस पर अभी कोई विस्तृत रिपोर्ट सामने नहीं आई है। वहीं कुछ क्षेत्र विशेष में हुए अध्ययन की रिपोर्ट कार्बन उत्सर्जन को लेकर चौंकाने वाली रही है। ऐसे में उत्तराखंड का वन विभाग ब्लैक कार्बन की स्थिति और उससे होने वाले नुकसान पर गंभीरता पूर्वक एक रिपोर्ट तैयार कर रहा है।बताया गया है कि इसमें वनाग्नि से हो रहे पर्यावरण को नुकसान का भी विस्तृत आकलन किया जा रहा है।
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जैव विविधता पर संकट के बादल
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि जंगलों की आग हिमालयी इकोसिस्टम पर बुरा प्रभाव डाल सकती है। इसका सबसे ज्यादा असर यहां की सबसे प्रसिद्ध जैव विविधता पड़ेगा। आग से वन्य जीव जंतुओं का अस्तित्व भी खत्म होता जा रहा है। वहीं जंगलों में पाई जाने वाली औषधीय और जड़ी-बूटियां भी नष्ट हो रही हैं। केदारघाटी से पूरे देश में शुद्ध वातावरण का संचार होता है अब उसके ही अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। बता दें कि हिमालय हॉट स्पॉट का कुल क्षेत्रफल 7,41,706 वर्ग किमी है। इसमें संरक्षित क्षेत्र 1,12,578 वर्ग किमी है। हिमालय का आइयूसीएन की कैटेगरी 1-6 के तहत संरक्षित क्षेत्र 77,739 वर्ग किमी तथा हॉटस्पॉट वनस्पति क्षेत्र 185427 वर्ग किमी है। यहां औसत मानव जनसंख्या घनत्व 123 प्रति वर्ग किमी है। इस संवेदनशील क्षेत्र में 3160 इंडेमिक पादप प्रजातियां हैं और अस्तित्व के खतरे वाले जीव 4 तथा अस्तित्व के खतरे वाले पक्षी 8 हैं। इस क्षेत्र में अस्तित्व के खतरे वाले स्तनपाई जीवों की 4 प्रजातियां हैं। ये सारी प्रजातियों को वनाग्नि नष्ट कर जाती हैं। उत्तराखण्ड हिमालय में पादपों की विभिन्न वर्गों और कुलों की लगभग 4 हजार प्रजातियां हैं। जिनमें से 161 दुर्लभ प्रजातियां हैं। अस्तित्व के खतरे से जूझ रही ऐसी दुर्लभ प्रजातियों के लिये जंगल की आग महाविनाशकारी साबित हो रही है। देखा जाए तो वनस्पतियां मिट्टी से भोजन लेती हैं और मांसाहारी जीव शाकाहरी जीवों का भक्षण करते हैं। ये सभी मुख्य परिणाम खाद्य श्रृंखला में पौधों और जानवरों की अन्योन्याश्रयता के कारण होते हैं। यहां तो सवाल एक दो जीवों या पादपों के लुप्त होने का नहीं बल्कि जंगलों के जीवन विहीन होने का है।
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जल रहा है करोड़ों का कारोबार
एक ओर जहां दुनिया भर में टिम्बर यानी लकड़ी से बने सामानों की मांग लगातार बढ़ रही है। वहीं जंगलों में लगती भीषण आग भी उनपर गहरा दबाव डाला है। इस बारे में द आॅस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी (एएनयू), शेफील्ड विश्वविद्यालय और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि जंगल में लगने वाली भीषण आग, दुनिया भर में टिम्बर उत्पादन को खतरे में डाल रही है। रिसर्च से पता चला है कि पिछले दो दशकों में 2.47 करोड़ हेक्टेयर लकड़ी उत्पादक जंगल आग की भेंट चढ़ गए थे, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 6.4 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। बता दें कि इस अध्ययन के नतीजे जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित हुए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इमारती लकड़ी महत्वपूर्ण संसाधन है। इसका उपयोग कागज और ऊर्जा के लिए किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा जारी द स्टेट आॅफ वर्ल्डस फारेस्ट रिपोर्ट 2022 के मुताबिक टिम्बर उद्योग वैश्विक अर्थव्यवस्था में करीब 1.5 लाख करोड़ डॉलर से अधिक का योगदान दे रहा है। इतना ही नहीं यदि 2020 के आंकड़ों पर नजर डालें तो वैश्विक तौर पर कम से कम करीब एक तिहाई वनों का उपयोग टिम्बर उत्पादन के लिए किया जा रहा है।
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ने चेते तो आएगी बड़ी मुसीबत
शोधकर्ताओं का मानना है कि बढ़ते तापमान और जलवायु में आते बदलावों के चलते यह समस्या कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले रही है। इसकी वजह से साल दर साल जलते जंगलों में इक्कीसवीं सदी के दौरान उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 2001 और 2019 के बीच जंगल में लगी आग को देखें तो उससे 11 करोड़ हेक्टेयर से अधिक जंगल नष्ट हो गए थे। पर्यावरण वैज्ञानिकों के मुताबिक यदि इसपर अभी गौर न किया गया तो यह महाविनाशक साबित होगा। समय से बारिश से लेकर बर्फबारी और मौसम परिर्वन सब कुछ खतरे में पड़ जाएगा।
Rajneesh kumar tiwari