नई दिल्ली। लोकतंत्र के महापर्व की रणभेरी बज चुकी है। लोकसभा चुनाव में इस बार पीएम मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए और विपक्षी धड़े इंडिया गठबंधन के बीच मुख्य मुकाबला है। इस चुनाव में पीएम मोदी एक बड़ा और विश्वसनीय चेहरा बने हुए हैं। इसके अलावा भी कई चेहरे हैं जो इस चुनाव में अपना असर डालेंगे। इसमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, दिल्ली से लेकर पंजाब में अरविंद केजरीवाल के अलावा महाराष्ट्र, ओडिशा से लेकर दक्षिण भारत में कई छत्रप पार्टियां शामिल हैं जो इस चुनाव में अहम भूमिका निभाएंगी।
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भाजपा की ताकत
चुनाव जीतने के लिए सबसे जरूरी पार्टी और पीएम पद के चेहरे की लोकप्रियता होती है। ऐसे में हमें यहस सबसे पहले जान लेना चाहिए कि भाजपा की ऐसी क्या ताकत है जिसके बल पर वह 400 से ज्यादा सीटें जीतने का नारा दे रही है। इसका जवाब है कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी का सबसे बड़ा चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। बीजेपी हीं नहीं विपक्ष भी उनके इर्द-गिर्द अपना अभियान चलाते हैं। वस्तुत: पीएम मोदी की जीत में ही भाजपा की जीत समाहित है। ऐसे में विपक्ष उनके प्रति अपनी नापसंदगी से परेशान है। पीएम मोदी और भाजपा के प्रचार में न केवल हिंदुत्व, सांस्कृतिक पुनरुत्थान शामिल है बल्कि आर्थिक विकास, देश और विदेश में सशक्त राष्ट्रवाद इसका प्रमुख हिस्सा है। आम तौर पर देखा जाए तो वोटर केवल धार्मिक मुद्दों पर वोट नहीं करता बल्कि विकास और देश में ढ़ाचागत विकास को भी परखता है। हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसके धार्मिक प्रतीकों और उसकी परंपराओं को सम्मान मिले। साथा देश विकास की नई ऊंचाईयों को छुए। भाजपा की सफलता का राज इसी तथ्य में छिपा है। देश में इस समय केवल भाजपा ही दिखाई देती हैं जिसमें यह सभी तथ्य मिलते हैं।
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प्रचार अभियान भाजपा की ताकत
न केवल भाजपा के लिए बल्कि विपक्ष के लिए भी मुख्य कैंपन का विषय पीएम मोदी ही हैं। विपक्ष कई मापदंडों पर उनकी आलोचना कर रहा है। पीएम मोदी अपने प्रशंसकों के लिए बड़े परिवर्तनकारी व्यक्ति हैं जो स्थिरता का वादा करते हैं। अपने आलोचकों के लिए वह एक अत्यंत ध्रुवीकरण करने वाले व्यक्ति हैं। चुनावी पंडितों के लिए वह सबसे पसंदीदा हैं। देखा जाए तो देश की राजनीति में 2014 के बाद से पीएम मोदी का नाम लगातार छाया हुआ है। विपक्ष का निशाना भी पीएम मोदी पर है, दुनिया की नजर भी मोदी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय लोकप्रियता के जिस शिखर पर पहुंचे हैं, उसका श्रेय उनकी तमाम सियासी ताकतों को ही जाता है। पीएम मोदी की सबसे बड़ी ताकत उनका तजुर्बा है। ये नहीं भूलना चाहिए मोदी ने अपनी राजनीति की शुरूआत एक प्रचारक के रूप में की थी। संघ के साथ काफी शुरूआत में ही वे जुड़ गए थे। पोस्टर लगाने से लेकर छोटे-छोटे कार्यक्रम करने लगे थे यानी उन्होंने कम उम्र में ही राजनीति सीख ली थी। जनता के साथ भी उनका कनेक्ट काफी पहले ही स्थापित हो चुका था। पहले संघ और बीजेपी के साथ काम करने की वजह से उन्हें पूरा देश भ्रमण करने का सुनहरा मौका मिला था। शुरूआत में क्योंकि ज्यादा बड़े नेता नहीं थे, ऐसे में हर जगर कार्यकर्ता की तरह जाते, वहां की सियासी, भागौलिक स्थिति समझते। अब आज के समय में जब पीएम मोदी अपनी हर रैली वहां के इलाके की खासियत की बात करते हैं, वहां की पहचान का जिक्र करते हैं, वो सिर्फ बयान मात्र नहीं होते, बल्कि उनका अनुभव बोलता है।
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बोलने की शैली बड़ी ताकत
देखा जाए तो मौजूदा समय में विपक्ष के पास कोई ऐसा नेता नहीं है जो पीएम मोदी के बोलेने की शैली और उनके अंदाज की काट साबित हो सके। राजनीति में भाषणबाजी एक आम बात है, हर कोई स्टेज पर खड़ा होकर बोल सकता है। लेकिन लगातार जनता से कनेक्ट बनाए रखना, अपनी बातों से उन्हें बांधकर रखना एक कला होती है। बीजेपी में ही ये कला अटल बिहारी वाजपेयी, सुषमा स्वराज जैसे नेताओं में देखने को मिलती थी। वहीं 2014 के बाद से पीएम मोदी ने उस कला का इस्तेमाल अलग ही स्तर पर किया।
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भाजपा की कमजोरी
कुछ ऐसी कमजोरियां भी हैं जो भाजपा को विपक्ष के निशाने पर लाती हैं। जनता के बीच में भी कुछ बातों को लेकर ऐसा नेरेटिव सेट हो चुका है कि उन्हें तोड़ना खासा मुश्किल हो जाता है। भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी मुस्लिम समाज को लेकर बनी उनकी छवि है। कहने को मोदी सरकार ने ट्रिपल तलाक खत्म किया, कुछ दूसरे कदम भी उठाए, लेकिन मोटे तौर पर देखा जाए तो मुस्लिम समाज पीएम मोदी को बहुत ज्यादा उत्साह के साथ नहीं देखता है। इसका असर वोटिंग पैटर्न में भी देखने को मिलता। भाजपा की एक और कमजोरी उनका दक्षिण भारत में कमजोर होना भी है। हिंदी भाषी राज्यों में तो भाजपा की पकड़ दमदार है लेकिन दक्षिण भारतीय अस्मिता के नाम पर चल रही राजनीति के सामेन वह मात खा जाती है।
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दक्षिण भारत में भाजपा की रणनीति
आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 370 और एनडीए को 400 पार सीटें हासिल करने के लिए मौजूदा सीटें बरकरार रखने के अलावा दक्षिण और पूर्व में भी अपनी ताकत बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए पार्टी की नजरें तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश पर हैं। पूर्व की बात करें तो पार्टी ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भी बड़ा लक्ष्य लेकर चल रही है। दक्षिण में कर्नाटक और तेलंगाना को छोड़कर केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश, लक्षद्वीप और पुड्डुचेरी में बीजेपी की कोई सीट नहीं है। यही कारण है कि मार्च महीने से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा तक दक्षिण राज्यों में बड़ी सभाएं करते देखे गए। फिलहाल इस बार दक्षिण भारत को लेकर भाजपा ने नई रणनीति अपनाई है। दक्षिण की 131 सीटों में बीजेपी के पास अभी केवल 29 सीटें हैं। इनमें से भी 25 अकेले कर्नाटक में हैं। बीजेपी कर्नाटक में विपक्ष में होने के बावजूद अपनी सीटों को बचाना चाहती है। इसीलिए जेडीएस से तालमेल किया है। आंध्र प्रदेश में टीडीपी और जनसेना से गठबंधन तय है। वहीं तेलंगाना में भी टीआरएस के साथ बीजेपी हाथ मिला सकती है। तमिलनाडु में एआईएडीएमके से रिश्ता टूटने के बाद अब बीजेपी वहां छोटे दलों को साथ लाना चाह रही है। तमिलनाडु में बीजेपी ने पीएमके से गठबंधन किया है। एनडीए गठबंधन के तहत पीएमके तमिलनाडु की 10 लोकसभा सीटें पर चुनाव लड़ेगी। पीएमके के अध्यक्ष डॉ. एस. रामदास अंबुमणि और तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष अन्नामलाई ने गठबंधन का ऐलान किया। तमिलनाडु में पीएमके को वन्नियार समुदाय का सियासी दल माना जाता है। सूबे में इस समुदाय को काफी मजबूत माना जाता है।
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इंडी गठबंधन की सियासत
इंडी गठबंधन के सबसे बड़े दल कांग्रेस की टूट से भाजपा मजबूत होती जा रही है। आए दिन कांग्रेस का साथ छोड़कर कोई न कोई नेता भाजपा का दामन थाम रहा है। ऐसे में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए राह मुश्किल होती दिख रही है। कांग्रेस भले ही 2004 के चुनाव को दोहराने का दावा करती है लेकिन उसकी टूट को देखते हुए यह राह कांटों भरी दिखाई दे रही है। कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष अजीब सी उधेड़बुन में दिख रहा है। पीएम मोदी और भाजपा को चुनौती देने के लिए इंडी गठबंधन के पास न कोई बड़ा चेहरा है न कोई बड़ी आस ही दिख रही है। कांग्रेस के लिए एक संकट के बाद दूसरा संकट आकर खड़ा हो जाता है। वे भाजपा के अबकी बार, 400 पार के दावे को चुनौती नहीं दे पा रहे हैं। ग्रैंड ओल्ड पार्टी लगातार तीसरी बार लोकसभा चुनाव में पिछड़ती दिख रही है। ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या 2019 की तुलना में इस बार प्रदर्शन सुधरेगा? भाजपा 370 के पार की बात कर रही है तो क्या कांग्रेस 100 के पार जा सकती है?
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कांग्रेस की ताकत
आज के समय में भी कांग्रेस ही असल मायने में अखिल भारतीय पार्टी है. चौतरफा निराशा और निगेटिव खबरों के बावजूद, पार्टी की तीन राज्यों में सरकारें हैं. कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का जलवा बरकरार है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 19 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे। यह अकेली विपक्षी पार्टी थी जिसे डबल डिजिट में वोट मिले थे। ऐसे में पिछड़ने के बाद भी कांग्रेस दूसरे विपक्षी दलों से आगे है।
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राहुल का असर
राहुल गांधी बीजेपी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं लेकिन उनकी अपनी चुनौतियां हैं। पहले भारत जोड़ो यात्रा, फिर भारत जोड़ो न्याय यात्रा निकालकर राहुल कुछ नया करना चाहते हैं। लोग कह रहे हैं कि इंडियन पॉलिटकल लीग में पार्टी अब गंभीरता दिखा रही है। हालांकि राहुल गांधी की इन यात्राओं का चुनाव में कितना असर दिखेगा, यह कहा नहीं जा सकता है। पिछले डेढ़ साल से राहुल लगातार घूमते रहे हैं। रोडशो किया, ट्रक में घूमे, लोगों से मिले, बातें की इससे उनकी इमेज सुधरी है। भाजपा के बाद कांग्रेस ही एक बड़ी पार्टी है जो विचारधारा की बातें करती है। कांग्रेस ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पार्टी की सफलता का एक बड़ा श्रेय भारत जोड़ो यात्रा को दिया था। भारत जोड़ो यात्रा जिन 20 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरी थी, उनमें से 15 में कांग्रेस को जीत हासिल हुई। हालांकि यात्रा कई दिनों तक मध्य प्रदेश और राजस्थान में रही थी, लेकिन इसका चुनावी असर ज्यादा नहीं हुआ। कांग्रेस नेता मानते हैं कि भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों के लिए परिवर्तनकारी रही है। इस यात्रा ने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को प्रेरित करने में मदद की।
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कांग्रेस की कमजोरी
कांग्रेस पार्टी पिछले 10 साल से सत्ता से बाहर है। राहुल गांधी का पूरा फोकस पीएम मोदी और आरएसएस पर रहा। अब इसे बदलना होगा। कांग्रेस को चाहिए कि वह मुख्य विपक्षी पार्टी की तरह बरताव करे और पीएम मोदी को छोड़कर अपनी नीतियों का ज्यादा से ज्यादा प्रचार करे। जिससे पीएम भाजपा को चुनौती दी जा सके। कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी है कि 10 साल में नेताओं की नई पीढ़ी खड़ी करने में फेल रही है। आज वह पूरी तरह गांधी परिवार पर निर्भर है। मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी के अध्यक्ष हैं लेकिन सारे बड़े फैसले गांधी परिवार की सहमति से लिए जाते हैं। यह पार्टी के हित में नहीं है।
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साथ छोड़ते नेता
ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर मिलिंद देवड़ा तक राहुल गांधी के कई पुराने साथी एक-एक कर 10 साल में बिछड़ गए। कई मुख्यमंत्री पहले कांग्रेसी हुआ करते थे वे अब कांग्रेस छोड़कर अन्य दलों में जा चुके हैं। इनकी फेहरिस्त काफी लंबी है। ना सिर्फ कांग्रेस के दिग्गज नेता चुनाव से भाग रहे हैं, बल्कि कई सीनियर नेता बीजेपी या फिर एनडीए में शामिल हो चुके हैं। इनमें जो बड़े नाम हैं, वो हैं अशोक चव्हाण, मिलिंद देवड़ा, जगदीश शेट्टार, गीता कोड़ा, बसवराज पाटील, सुरेश पचौरी, आकृति गौसाईं रावत, अजय कपूर हैं।
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कांग्रेस के पास मौका
अगर 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी अपनी सीटें और वोट शेयर बढ़ाने में सफल रहती है तो वह भाजपा के खिलाफ सबसे मजबूत विपक्षी दल के रूप में खुद को पेश कर सकती है। ऐसे में राज्य के चुनावों में मुस्लिम और दूसरे विपक्षी दलों के वोट खींचने में आसानी होगी। बता दें कि देशभर में 200 सीट पर बीजेपी और कांग्रेस में सीधा मुकाबला है और बीजेपी अपनी आधी से ज्यादा सीटों पर कैंडिडेट के नाम का ऐलान कर चुकी है और पीएम मोदी ताबड़तोड़ रैलियां करके सियासी फिजा को अपने पक्ष में करने में जुट गए हैं। वहीं कांगे्रस के दिग्गजों चुनाव लड़ने से इनकार कर रहें हैं। चुनाव लड़ने से मना करने वाले कांग्रेसी दिग्गजों की लिस्ट भी लंबी है। तकरीबन एक दर्जन से ज्यादा बड़े नेता हैं जो इस बार का लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर रहे हैं या फिर चुनाव लड़ने से मना कर चुके हैं।
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इन नेताओं ने किया इनकार
सोनिया गांधी की हालांकि उनकी उम्र हो चुकी है, तबीयत ठीक नहीं रहती है, इसलिए वो राज्यसभा चली गईं। उन्होंने राज्यसभा जाने से पहले रायबरेली के जो कार्यकर्ता हैं, उनको बुलाकर कहा था कि मैं क्षेत्र में नहीं आ पाती हूं, मैं लोगों से मिल नहीं पाती हूं। इसलिए मैं लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहती। मल्लिकार्जुन खड़गे कलबुर्गी से लोकसभा सांसद रह चुके हैं और उस सीट से उनका नाम वहां की राज्य इकाई ने भेजा भी, लेकिन उन्होंने कहा कि मेरी उम्र 83 साल हो गई है। इस उम्र में आकर अब मैं कहां चुनाव लडूंगा. चूंकि वे पार्टी अध्यक्ष हैं, इसलिए तमाम जगहों पर जाकर उन्हें देश भर में रैलियां करनी हैं, प्रचार प्रसार करना है, इसलिए वह एक सीट पर फंसना नहीं चाहते। अशोक गहलोत का कहना है कि वह खुद नहीं लड़ना चाहते, उनकी भी उम्र हो गई हे, उनका कहना है कि वो सोनिया गांधी या खरगे उस लीग के नेता हैं, उनके साथ चलने वाले नेता हैं तो अब नई पीढ़ी को मौका मिलना चाहिए। इसलिए अपने बेटे को वैभव गहलोत को टिकट दिलाया। कमलनाथ ने साफ कहा कि मुझे छिंदवाड़ा में फोकस करना है और वहीं उम्र बहुत हो गई है, नई पीढ़ी को मौका मिलना चाहिए. नकुलनाथ वहां से सांसद हैं तो नकुलनाथ ही चुनाव लड़ेंगे तो नकुलनाथ का नाम भी वहां से आ गया। जितेंद्र सिंह गांधी परिवार के काफी करीबी हैं। अलवर सीट से सांसद रहे हैं, केंद्र में मंत्री रहे हैं। उनका कहना है कि अलवर सीट से अगर वो लड़ने जाते हैं तो प्रभारी महासचिव हैं। मध्य प्रदेश के भी और असम के भी. तो ऐसे में वे चुनाव में फोकस करें या चुनाव लड़ें तो वो भी पीछे हट गए।
सचिन पायलट पायलट एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने कहा था कि मैं चुनाव लड़ना चाहता हूं, लेकिन उन्होंने साथ में ये भी जोड़ दिया कि अगर मैं चुनाव लडूंगा तो जीतने के लिए लडूंगा और ऐसे में जो देशभर में उनकी रैलियां लगाई जा रही हैं। उसमें कटौती कर दी जाए, क्योंकि वो अपने क्षेत्र पर फोकस करना चाहेंगे। ऐसे में कांग्रेस आलाकमान ने ही कहा कि हमको आपको देश भर में रैलियां करानी हैं, देश भर में प्रचार-प्रसार करवाना है, आप चुनाव लड़ने की बजाय इस काम में ध्यान दीजिए। नवजोत सिंह सिद्धू पत्नी की बीमारी के चलते नवजोत सिंह सिद्धू ने लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया। उत्तराखंड के पूर्व सीएम हरीश रावत को पार्टी इस बार लोकसभा चुनाव लड़ाना चाहती है, लेकिन वो चुनाव न लड़ने की बात कह चुके हैं। पार्टी उन्हें हरिद्वार सीट से लड़ाना चाहती है. लेकिन वो अपने बेटे आनंद को टिकट दिलाना चाहते हैं। इनके अलावा कर्नाटक के मंत्रियों को कांग्रेस टिकट देना चाहती है जिनमें, एच सी महादेवप्पा को चामराजनगर, के एच मुनियप्पा को कोलार, बी. नागेंद्र को बेल्लारी, सतीश जारकीहोली को बेलगाम, ईश्वर खांद्रे को बिदर और कृष्णा बायरेगौड़ा को कांग्रेस बेंगलुरु उत्तर से उम्मीदवार बनाना चाहती है। इनमें से लगभग सभी मंत्रियों ने चुनाव लड़ने में कोई इच्छा नहीं दिखाई। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के सीनियर नेता, चुनाव लड़ने से किनारा कर रहे हैं, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने मध्य प्रदेश की 29 सीटों में से 28 सीटें जीती थीं।
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सचिन पायलट का दर्द
अलवर के पूर्व सांसद करण सिंह यादव समेत 18 नेताओं के कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में होने को लेकर पायलट ने भाजपा पर निशाना साधा। उन्होेंन कहा कि यदि भाजपा अपने को इतनी कॉन्फिडेंस वाली, ताकतवर और मजबूत मानती है तो, कांग्रेस के नेताओं को तोड़कर अपने में शामिल क्यों कर रही है?
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कितना मजबूत है गठबंधन
जुलाई में बेंगलुरु में विपक्षी गठबंधन की पहली बैठक हुई थी। इस बैठक में 26 दल शामिल थे। गठबंधन को इंडिया नाम दिया गया था। अब गठबंधन में कुछ ही दल बचे हैं। इनमें शिवसेना (उद्धव गुट), एनसीपी (शरद पवार गुट), सीपीआई, सीपीआईएम, डीएमके हैं। वहीं आम आदमी पार्टी केवल दिल्ली में साथ है। इसके अलावा झारखंड मुक्ति मोर्चा, आरजेडी, हैं सपा और कांग्रेस का यूपी में गठबंधन है। वहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले। वहीं इंडी गठबंधन में कई ऐसे क्षत्रप हैं जो भाजपा को चुनौती दे सकते हैं।तमिलनाडु की सत्तारूढ़ दल डीएमके मजबूत दिख रही है। डीएमके ने कांग्रेस सहित गठबंधन में शामिल अन्य दलों के साथ सीट साझेदारी पर भी अंतिम मुहर लगा दी है। महिला वोटरों को लुभाने के लिए डीएमके ने विधानसभा चुनावों की तरह ही महिलाओं को एक हजार रुपये प्रतिमाह सहायता राशि देने की योजना को जारी रखा है। हालांकि, यहां इस बार भाजपा भी नए जोश में है। भाजपा भी यहां जी-जान से मेहनत कर रही है।
चुनाव से पहले यह जानना महत्वपूर्ण हो गया है कि डीएमके की आखिर ताकत है और उनकी कमजोरी क्या है।
पार्टी की यह है ताकत:
पार्टी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री एम के स्टालिन का सीएए सहित अन्य मुद्दों पर कट्टर भाजपा विरोधी रुख।
सत्तारूढ़ डीएमके की लोकप्रियता कमोबेश बरकरार है।
डीएमके राज्य भर में बहुत मजबूत है।
पार्टी की कमजोरी:
परिवार शासन और 'वंशवाद की राजनीति, यह आरोप अक्सर अन्नाद्रमुक और भाजपा द्वारा लगाया जाता है।
डीएमके मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप।
पूर्व मंत्री सेंथिल बालाजी के खिलाफ ईडी का मामला दर्ज है और वह अब भी जेल में हैं।
राजस्व मंत्री केकेएसएसआर रामचंद्रन और वित्त मंत्री थंगम थेनारासु के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप।
अन्नाद्रमुक बार-बार द्रमुक पर निशाना साधते हुए आरोप लगा रही है कि उसने मेकेदातु मुद्दे में टीएन के अधिकारों को सुरक्षित नहीं किया।
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सपा को दिखानी होगी ताकत
चार अक्टूबर, 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन के चार वर्ष बाद ही पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव देश के रक्षा मंत्री बने और राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी पहचान बनकर उभरे। इटावा के छोटे से गांव सैफई से निकलकर मुलायम ने ऐसी साइकिल चलाई कि पार्टी प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर पहुंची और राष्ट्रीय राजनीति में भी पहचान बनाई। अब उसे राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाने को जूझना पड़ रहा है। खोया जनाधार पाने के लिए उसे कभी हाथी तो कभी पंजे का सहारा लेना पड़ रहा है। पांच वर्ष तक पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने के बाद अखिलेश ने 2017 के विस चुनाव में कांग्रेस से समझौता कर 311 सीटों पर चुनाव लड़ा, पर सपा मात्र 47 सीटों पर सिमट कर रह गई। 2019 के लोस चुनाव में बसपा की बैसाखी का सहारा लिया। 80 में से मात्र 37 सीटों पर चुनाव लड़ा और महज पांच सीटें ही जीत सकी। इसमें से दो सीटें सपा उपचुनाव में गंवा भी चुकी है। 2022 के विस चुनाव में पार्टी ने छोटे दलों का साथ लिया और 347 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारकर 111 सीटों पर सफलता पाई। इस चुनाव में उसे अब तक के सबसे अधिक 32.06 प्रतिशत वोट मिले। अब सपा को छोड़कर रालोद व सुभासपा भाजपा के पाले में जा चुके हैं, वहीं सपा इस लोस चुनाव में कांग्रेस का सहारा ले रही है। यूपी में गठबंधन के सामने मुस्लिम-यादवों के अलावा अन्य वर्ग के वोट मिलने के आसार कम ही हैं। इन दलों से जिस तरह राम मंदिर उद्घाटन कार्यक्रम का बहिष्कार किया उससे दोनों ही दलों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
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बिहार में कांग्रेस की सारथी आरजेडी
बिहार में बिछी चुनावी बिसात की तस्वीर अब साफ हो चुकी है। अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार भी घोषित हो चुके हैं। मुख्य मुकाबला भाजपा-जेडीयू के गठबंधन एनडीए और राजद-कांग्रेस-वाम दलों वाले महागठबंधन के बीच है। चारा घोटाले में सजा काट चुके लालू प्रसाद यादव इस बार भले ही चुनावी मोर्चे पर तैनात न हों लेकिन राजद के चुनावी पोस्टरों में उनका चेहरा नजर न आ रहा है। तेजस्वी, राजद और चुनावी चर्चाओं पर अब भी उनकी छाप है। जानकारों का मानना है कि लालू के पुत्र होने का लाभ उठाकर तेजस्वी बड़ा चेहरा तो बन गए हैं लेकिन लालू के पुत्र होने के नुकसान से भी उन्हें दो-चार होना पड़ रहा है। कांग्रेस और आरजेडी को मुस्लिम यादव मतदाताओं पर पूरा भरोसा है। बिहार में ये कम से कम एक तिहाई मतदाता हैं। लोकसभा में इस बार दोनों ही दल अच्छी खासी सीटें जीतने का मंसूबा पाले हुए हैं। यूपी तरह ही बिहार में भी राम मंदिर फैक्टर भी है। दोनों में से, लालू के बेटे बेहतर स्थिति में दिख रहे हैं क्योंकि बिहार में एमवाई का वोट यूपी की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है।
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उद्धव ठाकरे और शरद पवार
महाराष्ट्र में दो क्षत्रप और कांग्रेस भाजपा के दृढ़ संकल्प के रास्ते में खड़े हैं। यहा देखना लाजिमी है कि वे भाजपा को कितना रोक पाएंगे। एक ओर जहां एनसीपी दो धड़ों में बंटकर प्रदेश में काफी कमजोर हो चुकी है। वहीं शिवसेना उद्धव पर बाला साहेब ठाकरे के आदर्शों से समझौता करने का आरोप लग रहा है। अब उद्वव ठाकरे को आंशिक रूप से सामान्य शिवसैनिकों की सहानुभूति पर भरोसा है जो अभी भी बाला साहेब ठाकरे की कसम खाते हैं। उद्धव के सामेन सबसे बड़ी चुनौती उन पर हिंदुत्व के साथ विश्वासघात' का आरोप लगाने वाले अभियानों को बेअसर साबित करना है। वहीं चतुर मराठा यानी एनसीपी के लिए उनके परिवार में विभाजन बहुत बड़ा आघात है। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती मराठाओं के वोटों के विभाजन को रोकना होगा। इस बार कांग्रेस को जितनी जरूरत पवार को उनकी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरत उन्हें कांग्रेस और उसके मुस्लिम वोटों की होगी। जहां तक एनसीपी के दबदबे की बात है तो महाराष्ट्र की राजनीति का भौगोलिक नक्शा अगर एनसीपी के अनुसार बनाया जाए तो पश्चिमी महाराष्ट्र में पार्टी का परचम बुलंद नजर आएगा। यही हिस्सा एनसीपी और शरद पवार की मजबूती का आधार रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि, पार्टी के कैडर और नागरिकों को शरद पवार पर भरोसा है, लेकिन अब पार्टी के पास भरोसे के लिए सिर्फ शरद पवार रह गए हैं। सुप्रिया सुले को अभी हाल ही में संगठन में बड़ी जिम्मेदारी मिली है, लेकिन पार्टी के अंतिम लाइन के कार्यकर्ताओं के बीच अजित जैसी लोकप्रियता व समर्थन पाने में उन्हें अभी लंबा समय लगने वाला है।
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ममता की चोट का कितना असर
एक और क्षेत्रीय क्षत्रप ममता बनर्जी को मोदी और भाजपा नजरअंदाज नहीं कर सकती। इस बार बंगाल में रोचक मुकाबला होगा। विधानसभा चुÞनाव की तरह की ममता बनर्जी को सर में चोट लगी है। टीएमसी को इस बार भी आशा है कि विधानसभा चुनाव की तरह ही लोकसभा चुनाव में भी उनको जनता की सहानूभुति मिलेगी। अब यह चुनाव परिणाम ही बाताएगा कि उन्हें इसका कितना फायदा होगा। वहीं दूसरी ओर भाजपा के हाथ इस बार संदेशखाली के रुप में ऐसा मुद्दा मिल चुका है जिसकी काट ममता को नहीं मिल रही है। ममता को 2019 में तब झटका लगा, जब बीजेपी ने बंगाल में 18 लोकसभा सीटें छीन लीं। 2022 में विधानसभा चुनावों में भारी जीत के साथ उन्हें अपनी वापसी तो मिल गई लेकिन भाजपा के लिए भी जमीन तैयार हो गई। ममता बजर्नी 2024 में 2019 की तरह ही भाजपा को ज्यादा सीटें जीतना नहीं देना चाहती हैं। इससे उनकी राजनीतिक स्थिति पर असर पड़ेगा। बीजेपी को उम्मीद है कि संदेशखाली की में टीएमसी की ज्यादती और पीएम की अपील से उन्हें मदद मिलेगी। इस बार के चुनाव में भी बंगाल की राजनीति, हमेशा की तरह, अशांतिपूर्ण, उग्र और हिंसा से ग्रस्त है। ऐसे में यह तो समय ही बताएगा की बंगाल में इस बार किसका जादू चलता है।
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कमजोर हो रहा बसपा का प्रदर्शन
एक और क्षेत्रीय क्षत्रप मायावती भाजपा की राह में मुश्किल पैदा कर सकती थीं लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। हाल के कई विधानसभा चुनावों को देखें तो बसपा की स्थिति राज्यों में कमजोर हुई है। वहीं मार्च महीने तक बसपा ने जिन उम्मीदवारों को टिकट दिया है उससे भाजपा की राह मुश्किल होने के बजाए आसान होती दिख रही है। मार्च महीने में पार्टी ने अब तक उत्तर प्रदेश में अब तक 25 सीटों पर लोकसभा प्रत्याशी उतारे हैं। इसमें आठ सवर्ण, सात मुसलमान और तीन ओबीसी प्रत्याशी हैं। जबकि सात सुरक्षित सीटों पर अनुसूचित जाति के प्रत्याशियों को मैदान में उतारा गया है। बहुजन समाज पार्टी के इन 25 सीटों वाले सियासी समीकरणों के आधार पर उसकी आगे की रणनीति स्पष्ट दिख रही है। दरअसल मायावती ने अब तक जितने प्रत्याशी मैदान में उतरे हैं, वे सब सोशल इंजीनियरिंग के नजरिए से पार्टी को फायदेमंद नजर आ रहे हैं। राजनीतिक जानकार भी मानते हैं कि मायावती ने कई सीटों पर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी के मिशन 80 वाले सियासी रथ को रोकने का इंतजाम शुरू कर दिया है। हालांकि बहुजन समाज पार्टी के नेताओं का कहना है कि उनकी पार्टी सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूलू के साथ-साथ दलितों, मुसलमानों और पिछड़ों को लेकर ही पूरी योजना बना रही है। बसपा ने मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतार कर दलित मुस्लिम समीकरण साधे हैं। जबकि कैराना जैसी सीट पर सवर्ण, ओबीसी और दलितों की मिली जुली आबादी के चलते ही सवर्ण प्रत्याशी मैदान में उतारकर सियासी गठजोड़ को साधा है।
कैराना में तकरीबन एक तिहाई मुसलमान वोटर भी हैं। अगर इस गणित को समझें तो यह सपा-कांग्रेस गठबंधन के लिए नुकसानदेह है भाजपा के लिए नहीं।
Rajneesh kumar tiwari